यात्रा
ब्रह्म से बिछड़ने के बाद दुःख संताप व् पीड़ा ही जीव का भाग्य बन जता है वह परिवर्तन के निमित हो जाता है गति उसे तरसा देती है वह शांति चाहता है स्थिरता चाहता है पर अहंकार के वेग में बहे चला जाता हैआकाश से वायु
वायु से मेघ
मेघ से जल
जल शस्य
शस्य से शुक्र
शुक्र से गर्भ
गर्भ से योनी
योनी के भोग
भोग से कर्म
कर्म से बंधन
और पुन वही चक्र व्यूह, पर मनुष्य योनी वह पड़ाव है जहा पहुच कर जीव इस चक्र व्यूह का भेदन कर पुन ब्रह्मा को पा सकता है जहा स्थिरता शांति व् परमानन्द है
विशुद्ध ज्ञान ही वह अमृत है जो शिव प्राप्ति का परम साधन है केवलं का प्राप्ति कारक मात्र विशुद्ध ज्ञान और परिपूर्ण समर्पण है